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   दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा    
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु 

संकट से लड़ने के लिए ‘एंटीसिपेटरी मैनेजमेंट’

संकट से लड़ने के लिए ‘एंटीसिपेटरी मैनेजमेंट’
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May 19, 2021

संकट से लड़ने के लिए ‘एंटीसिपेटरी मैनेजमेंट’


एएमएस (एंटीसिपेटरी मैनेजमेंट सिस्टम) मैनेजमेंट के पाठों में लोकप्रिय टर्म है, जिसमें व्यक्ति को संकट आने से पहले उसका अनुमान लगाना होता है। यह व्यक्तियों, कंपनियों और सुशासन, सभी पर लागू होता है।


मुझे यह मंगलवार को तब याद आया, जब मैं ताऊते तूफान झेलने वाले महाराष्ट्र के कुछ तटीय इलाकों में गया। तूफान से प्रभावित होने के बावजूद कुछ जनजातीय लोग कोरोना की तीसरी लहर के बच्चों पर असर को लेकर ज्यादा चिंतित थे। वे जानते थे कि पोषक भोजन की कमी बच्चों के लिए खतरनाक है। उनकी गहरी समझ देख मैं हैरान था। उनमें बहुत कुपोषित बच्चे नहीं थे, लेकिन सुपोषित भी नहीं थे। मार्च 2020 में लॉकडाउन के कारण जरूरी चीजें पहुंचना मुश्किल हो गया और स्कूलों के पोषण कार्यक्रम भी बंद हो गए। इससे जनजातीय समेत गरीबों की चिंता बढ़ी है।


दुर्भाग्य से उनकी देखभाल करने वाले एनजीओ और चैरिटी संगठनों की प्राथमिकताएं कोरोना के कारण बदल गई हैं। वे बच्चों को पेट के कीड़े मारने की दवाएं देते थे क्योंकि कीड़े बच्चों को एनीमिक बनाते हैं और कुपोषण से लड़ने की क्षमता कम करते हैं। कई लोगों को डर है कि तीसरी लहर आने पर ये बच्चे बहुत प्रभावित होंगे।


कोविड के वायरस ‘सार्स-कोव-2’ के मानव शरीर पर असर का विश्लेषण कर रहे यूके के शोधकर्ताओं ने नई जानकारी दी है। फिजिशियन, केमिकल बायोलॉजिस्ट और मानव पोषण विशेषज्ञों की शोध टीम ने कोविड को केवल लंग्स को प्रभावित करने वाली बीमारी से इतर, ऊंचे स्तर पर देखा और जांचा कि पूरा शरीर वायरस का कैसे सामना करता है। इसे इलेक्ट्रॉन एक्सचेंज प्रक्रियाओं के नजरिए से देखा गया, जिसे ‘रेडॉक्स’ भी कहते हैं।


उनका विश्लेषण जर्नल एंडीऑक्सीडैंट्स और रेडॉक्स सिग्नलिंग में प्रकाशित हुआ है। इसके मुताबिक संक्रमण का सामना करने की शरीर की क्षमता में तीन क्षेत्र मुख्य हैं। जरूरी रेडॉक्स बैलेंस बनाए रखने के लिए पोषण सबसे जरूरी है।


कई जनजातीय पटि्टयों और गरीब परिवारों में जन्म के समय बच्चे का वजन कम होना आम है। कनाडा में 1977 में शुरू हुई और पिछले हफ्ते खत्म हुई एक शोध परियोजना के मुताबिक ज्यादातर कम वजन वाले शिशुओं में ऐसे संकेत होते हैं, जो ‘कालक्रम के अनुसार’ उनकी उम्र की तुलना में ‘जैविक उम्र’ ज्यादा बताते हैं। जन्म के समय 2.2 किग्रा के सामान्य वजन वाले पुरुष की तुलना में जन्म के समय कम वजन वाले पुरुष जैविक अर्थों में औसतन पांच वर्ष बड़े थे। ‘पीडियाट्रिक्स’ जर्नल में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि बीमार होने के प्रति संवेदनशीलता और गर्भ में बिताए गए समय में संबंध है। मैकमास्टर यूनिवर्सिटी, कनाडा के डॉ रियान वैन लाइशाउट और उनकी टीम का शोध बताता है कि लड़कियों की तुलना में लड़के ज्यादा असुरक्षित हैं।


इन सब नजीतों को पढ़ने के बाद मैंने अपने घरेलू नौकरों, रसोइये, चौकीदार और ड्राइवर से उनके बच्चों का जन्म के समय वजन, ऊंचाई और डाइट आदि के बारे में पूछा, क्योंकि वे भी स्कूल नहीं जा रहे हैं, जहां मिड-डे मील से पोषण मिलता है। कम से कम यह जागरूकता हमारे घर से और हमपर निर्भर लोगों से शुरू हो। बतौर टूल एएमएस सिर्फ कंपनियों के फायदे के लिए नहीं, बल्कि जरूरतमंद की मदद में भी इस्तेमाल हो।


फंडा यह है कि इससे पहले कि तीसरी लहर गरीब आबादी के असुरक्षित बच्चों को बड़ा नुकसान पहुंचाए, यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इसके लिए कुछ करें।

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