दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
सुरक्षा के भाव के बिना आराम बेकार है


Aug 14, 2021
सुरक्षा के भाव के बिना आराम बेकार है
महामारी के बाद मैं पहली छुट्टी पर हूं। लगभग 18 महीने बाद अपने रिश्तेदारों से मिल रहा हूं, ट्रेन से सफर कर दक्षिण में अपने गृहनगर पहुंचा हूं, जहां कुल देवता के मंदिर जाऊंगा साथ ही मेरे एक अंकल के 80वें जन्मदिन के उत्सव में भी शामिल होऊंगा, जिसे तमिल में सदाभिषेकम् कहते हैं। यह सब कोविड प्रोटोकॉल के साथ कर रहा हूं। इस शुक्रवार मैंने पहली रेल यात्रा की, तमिलनाडु के चेन्नई से मेरे गृहनगर कुंभकोणम के बीच, जिसे हमारे देश का मंदिरों का शहर कहते हैं।
करीब 600 किमी की यात्रा के दौरान बुजुर्गों ने भारतीय रेलवे के साथ अपनी कुछ शुरुआती यात्राओं की यादों की जुगाली की और बताया कि 1950-60 के दशक की तुलना में कैसे सुरक्षा का भाव कम हो गया है। 1956 में मद्रास (अब चेन्नई) और बॉम्बे (अब मुंबई) के बीच जनता एक्सप्रेस चलती थी, जिसमें 14 बोगी थर्ड क्लास की थी, लेकिन बीच की 10 बोगी बैठने के लिए रिजर्व होती थीं। रेलवे ने स्लीपर कोच काफी बाद में शुरू किए।
हम अपर क्लास में थे। बुजुर्गों ने इसमें तमाम सुविधाओं के बावजूद मौजूदा पीढ़ी के लिए सुरक्षा के भाव की कमी की ओर ध्यान दिलाया। बर्थ के नीचे चेन से बंधे सूटकेस हमें बताते हैं कि यात्री अपने सामान की सुरक्षा के लिए खुद जिम्मेदार हैं। ऊपर दी गई जनता एक्सप्रेस में दो मेट्रो शहरों के बीच 22 रुपए टिकट था। उसमें कई सुरक्षा जांच होती थीं। टिकटिंग स्टाफ की जानकारी के बिना कोई ट्रेन में चढ़ नहीं सकता था और हर 30 मिनट में सिक्योरिटी सुपरवाइजर हर बोगी में जाते थे, जबकि उन दिनों चलती ट्रेन में एक बोगी से दूसरी में आने-जाने के लिए बीच में गलियारा नहीं होता था। हर घंटे रिजर्व्ड बोगी में वर्दी में एक हट्टा-कट्टा व्यक्ति भी आता-जाता था, जिससे यात्री आश्वस्त रहते थे कि उनका सामान सुरक्षित है।
दिलचस्प यह है उन दिनों ट्रेन में खाना नहीं होता था। शुरुआती स्टेशन से कैफेटेरिया का एक व्यक्ति यात्रियों के साथ चढ़ता था और भोजन के इच्छेक लोगों से दो-दो रुपए इकट्ठा कर लेता था। भोजन आंध्रप्रदेश के कुड्डापा स्टेशन पर शाम 7.30 बजे मिलता था। वह पैसे लेकर टोकन देता था ताकि डिनर टेबल पर लेन-देन न हो। टोकन देने वाला बीच-बीच के स्टेशनों से डिनर बुकिंग की संख्या बता देता था, ताकि कैफेटेरिया केले के पत्ते बिछाकर डाइनिंग टेबल तैयार कर सके। ट्रेन रुकते ही सभी यात्री उतरकर शाकाहारी कैफेटेरिया की ओर भागते थे। फिर भरपेट ‘सेवन कोर्स डिनर’ के बाद ट्रेन में 10 मिनट में ही लौट जाते थे। इस दौरान उन्हें सामान की चिंता नहीं रहती थी क्योंकि पूरा चेकिंग स्टाफ, सुपरवाइजर और वर्दी वाला व्यक्ति 14 बोगियों की सुरक्षा करते थे और उनकी जानकारी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था।
यह आधुनिक मशीनों के खिलाफ इंसानों का प्रभावशाली होना नहीं था। लेकिन उनकी लगातार गश्त और त्रिस्तरीय निगरानी व्यवस्था से यात्रियों में विश्वास का माहौल पैदा होता था कि वे पूरी तरह सुरक्षित हैं। ऐसा अहसास करोड़ों की मशीनें आज भी नहीं दे सकतीं। यही वह मानव बंधन है जिसे विश्वास कहते हैं, जिसे केवल एक मानव शरीर ही पैदा कर सकता है और इंसान ही इस संदेश को समझ सकता है।
फंडा यह है कि मशीनें ज्यादा काम कर सकती हैं लेकिन इंसान ज्यादा तसल्ली दे सकते हैं, जिसमें मशीनें असफल हैं। याद रखें, सुरक्षा के भाव के बिना आराम बेकार है।