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जिएँ संतुलित जीवन…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Nov 16, 2023
  • 4 min read

Nov 17, 2023

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, जीवन में पैसे वाला होना महत्वपूर्ण है या शांत मन का होना; यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसके उत्तर को हम सब जानते हैं, लेकिन उसके बाद भी स्वीकारने को राज़ी नहीं रहते हैं। मेरी नज़र में इसकी मुख्य वजह भौतिक इच्छाओं और आत्मिक ज़रूरतों के बीच में संतुलन ना होना है। जी हाँ दोस्तों, हम जैसे सांसारिक मनुष्य के लिए दोनों का ही अपना-अपना महत्व है। अगर आप समझौता कर शांति को तलाशेंगे, तो दैनिक ज़रूरतें और पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ पीछे छूटती जाएँगी और अगर आप आत्मिक ज़रूरतों को नज़र अन्दाज़ कर सिर्फ़ ज़िम्मेदारियों और भौतिक ज़रूरतों की पूर्ति में लग जाएँगे, तो सब कुछ होने के बाद भी अशांत और दुखी रहने लगेंगे, जैसा सिकंदर के साथ हुआ था। ऐसी स्थिति में किया क्या जाए यह हमारे जैसे साधारण लोगों के लिए एक यक्ष प्रश्न बन जाता है और फिर सामान्यतः हम जैसे लोग इसका हल कभी आध्यात्म, तो कभी पूजा-पाठ तो कई बार ज्योतिषशास्त्र की मदद से खोजने लगते हैं।


ऐसा ही कुछ एक बहुत ही अमीर सेठ के साथ हुआ। जीवन भर जी तोड़ मेहनत कर उन्होंने ढेर सारा पैसा तो कमा लिया था लेकिन उसके बाद भी वे हमेशा अशांत रहते थे। एक बार किसी ने उन्हें बता दिया कि गाँव के बाहरी इलाक़े में एक पहुँचे हुए संत रहते हैं, जो मनचाही वस्तु प्राप्त करने में मदद करते हैं। संत के विषय में सुनते ही सेठ को विश्वास हो गया कि यही वो इंसान है जो उन्हें इस समस्या का समाधान सुझा सकते हैं। वह उसी पल उनके आश्रम पहुँच गया और उन्हें अपनी समस्या बताते हुए शांति पाने का उपाय पूछने लगा। हालाँकि वह मन ही मन सोच रहा था कि हो ना हो यह संत उसे कोई ताबीज़ दे देंगे या फिर कोई पूजा-पाठ अथवा तंत्र-मंत्र के ज़रिए शांति प्राप्त करने का उपाय बता देंगे। लेकिन संत ने ऐसा कुछ करा नहीं। उन्होंने तो बस सेठ को कुछ दिन अपने साथ आश्रम में रुकने के लिए कहा, जिसे सेठ ने स्वीकार लिया।


सेठ अभी भी सोच रहा था कि संत उससे कोई पूजा करवायेंगे या फिर उसे कोई ताबीज़ वग़ैरह देंगे। लेकिन अगले दिन संत ने ऐसा कुछ नहीं करा और सेठ को दिनभर के लिए धूप में बैठा दिया और ख़ुद कुटिया के अंदर मज़े से छाया में बैठे रहे। गर्मी के मौसम में धूप में बैठे रहने के कारण सेठ का बुरा हाल था। उसे संत पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था। वह सब कुछ छोड़ कर वापस लौटने के बारे में सोच रहा था। लेकिन उसने किसी तरह ख़ुद पर क़ाबू रखा और एकदम शांत बना रहा क्योंकि वह अशांति से बहुत परेशान था।


अगले दिन जैसे ही सेठ संत के पास पहुँचा उन्होंने उसे दिनभर भूखे रहने के लिए कह दिया। अशांति से परेशान सेठ, अपनी समस्या के समाधान पाने की आस में दिनभर भूखा रहा। वहीं दूसरी ओर संत उसके सामने मज़े से तरह-तरह के पकवान खाते रहे। यह देख सेठ और परेशान हो गया और पूरी रात भूखे रहने के कारण सो भी नहीं पाया। वह पूरी रात साधु के कठोर व्यवहार के विषय में सोचता रहा।


तीसरे दिन सुबह सेठ ने अपना सामान समेटा और अपने घर जाने की तैयारी करने लगा। तभी संत अचानक से वहाँ आए और बोले, ‘क्या हुआ सेठ? कहाँ जाने की तैयारी कर रहे हो?’ सेठ अनमने मन से खिन्न स्वर में बोला, ‘बड़ी आस लिए आपके पास आया था। लेकिन इन दो दिनों में तो मुझे कुछ हल मिला नहीं, उल्टा इस दौरान मैंने ऐसी मुसीबतों का सामना किया, जिनकी मैंने सपने में भी परिकल्पना नहीं की थी। इसलिए अब मैं वापस अपने घर जा रहा हूँ।’ इतना सुनती ही संत मुस्कुराए और बोले, ‘मैंने तो दोनों दिन तुम्हें तुम्हारी समस्या का समाधान देने का प्रयास किया, पर तुमने लिया ही नहीं।’ इतना सुनते ही सेठ आश्चर्य से भर गया और थोड़ा चिढ़ते हुए बोला, ‘आपने मुझे परेशानी के सिवा दिया क्या है?’ साधु एकदम गंभीर स्वर में बोले जब मैंने तुम्हें धूप में बैठाया और ख़ुद छाँव में बैठा, तब मैं तुम्हें इस बात का एहसास करवाना चाह रहा था कि मेरी छाया तुम्हारे किसी काम नहीं आ सकती है। जब तुम यह समझ नहीं पाए तो दूसरे दिन मैंने तुम्हें भूखा रखा और ख़ुद अलग-अलग व्यंजन खाता रहा। इससे मैं तुम्हें समझाना चाह रहा था कि मेरे खा लेने से तुम्हारा पेट नहीं भरेगा। हमेशा याद रखना मेरी साधना से तुम्हें सिद्धि नहीं मिल सकती। याने तुम्हें अपनी समस्या का समाधान किसी और के पास नहीं मिल सकता है। जिस तरह तुमने तुम्हारा धन अपनी मेहनत से कमाया है ठीक उसी तरह शांति भी तुम्हें अपने पुरुषार्थ, साधना और मेहनत से कमाना पड़ेगी।’


बात तो दोस्तों संत ने एकदम गहरी कही थी। पैसा हो या शांति अथवा कोई और चीज, हमें जिसकी भी अपने जीवन में ज़रूरत महसूस होती है, उसे हमें ख़ुद ही कमाना पड़ता है। यह तभी संभव हो सकता है जब हम बाहरी साधन और संसाधन के साथ-साथ अपनी आंतरिक ज़रूरतों को भी ध्यान में रखते हुए रोज़मर्रा के जीवन में कार्य करें। अर्थात् रोज़मर्रा के जीवन में आंतरिक और बाहरी ज़रूरतों के बीच में समन्वय बनाकर प्राथमिकताओं के आधार पर अपना जीवन जिएँ। इसलिए दोस्तों, हमेशा याद रखियेगा, ‘ख़ुशी बाहरी कारकों पर निर्भर नहीं होती। याने हमें ख़ुश रहने के इन बाहरी स्रोतों पर अपनी निर्भरता को किसी अन्य अधिक स्थायी स्रोत से संतुलित करना चाहिए।’


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com

 
 
 

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