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  • Writer's pictureNirmal Bhatnagar

परोपकार की शक्ति…

Oct 14, 2023

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…


आइये दोस्तों, आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। बात हज़ारों साल पहले की है, एक दिन भगवान चित्रगुप्त एक ग़रीब मोची राजू के कर्मों का लेखा-जोखा मिला रहे थे। भगवान चित्रगुप्त को राजू के खाते में कुंभ स्नान का फलित पुण्य खाते में डालते देख वहाँ मौजूद कुंभ देवता बोले, ‘भगवान चित्रगुप्त जी, शायद आपसे कुछ चूक हो रही है। राजू तो कभी कुंभ स्नान के लिए गया ही नहीं है। मैंने इस विषय में आपसे चर्चा करने से पहले श्री प्रयागराज जी, गंगा मैया, श्री देवप्रयाग जी और श्री रुद्रप्रयाग जी से इस विषय में पूछ लिया है। उन सभी के मतानुसार राजू मोची कुंभ में नहीं आया था। लेकिन इस सबके बाद भी आपने इस कुंभ का सबसे ज्यादा पुण्य राजू मोची के खाते में डाला है।’


कुंभ देवता की बात सुन चित्रगुप्त भगवान मुस्कुराए और बोले, ‘जहाँ तक मुझे लगता है, मैंने कर्मों का हिसाब बिलकुल सही तरीक़े से किया है। लेकिन फिर भी आपके संशय को दूर करने के लिए हम राजू मोची के गाँव चलते हैं और उससे मिलकर इस मानसिक दुविधा का निदान करते हैं।’ इतना कहकर भगवान चित्रगुप्त, कुंभ देवता को लेकर पलक झपकते ही राजू मोची के गाँव पहुँच गए। वहाँ पहुँचने पर जब दोनों ने राजू मोची के बारे में पूछताछ करी तो वे यह जान कर हैरान रह गए कि वो ख़ुद की ज़रूरतों को नज़रंदाज़ कर भी दूसरों की मदद करता है। लेकिन कुंभ देवता इससे भी संतुष्ट नहीं थे, वे भगवान चित्रगुप्त की ओर देखते हुए बोले, ‘भगवन, यह तो ठीक है लेकिन मैं अभी भी समझ नहीं पाया हूँ कुंभ का सबसे अधिक पुण्य राजू मोची को क्यूँ मिला?’


भगवान चित्रगुप्त बोले, ‘कुंभ देव, आपकी इस दुविधा का समाधान तो हमें राजू से मिलकर ही मिलेगा।’ इतना कहकर भगवान चित्रगुप्त कुंभ देवता को साथ लेकर राजू मोची के घर पहुँच गए। दोनों को साधु-संतों की वेशभूषा में देख राजू एकदम भाव विभोर हो गया और बोला, ‘महात्मन, आप मेरे घर पर? मैं तो जाती से चमार (मोची) हूँ महाराज। अर्थात् मैं वर्ण से शूद्र और विद्या के हिसाब से अनपढ़ हूँ। मैं चमड़े का धंधा करता हूँ और हमसे तो सामान्य लोग भी दूर रहते हैं। ऐसे में आप संत होकर भी हमारे घर पधारे, हम तो धन्य हो गये।


संत रूपी भगवान चित्रगुप्त राजू मोची को आशीर्वाद देने के पश्चात बोले, ‘वत्स, संत तो हर मनुष्य में ईश्वर का कण देखता है याने अपने प्रभु को देखता है; उसकी नज़र में तो हर इंसान समान होता है। इसलिए उसे किसी से भी मिलने में, किसी के भी घर जाने में कोई कठिनाई नहीं होती। वैसे मैं यह जानना चाहता हूँ क्या तुम कभी कुंभ मेले में गए हो?’ राजू मोची मुस्कुराता हुआ बोला, ‘नहीं महाराज अभी तक तो नहीं जा पाया हूँ। हालाँकि इस बार जाने की तो बहुत इच्छा थी, इसीलिए प्रतिदिन अपना पेट काटकर कुछ पैसे भी बचाया करता था। एक वर्ष तक लगातार बचत करने के बाद कुंभ में जाने और वहाँ रहने-खाने लायक़ पैसे इकट्ठे हुए थे। तबसे मैं कुंभ मेले के शुरू होने की प्रतीक्षा करने लगा ताकि मैं गंगा जी के दर्शन और स्नान का लाभ ले सकूँ। लेकिन तभी एक दिन मेरी गर्भवती पत्नी ने पड़ोसी के यहाँ बन रही पालक की सब्ज़ी की सुगंध सूंघकर, पालक खाने की इच्छा प्रकट करी। चूँकि मैंने बुजुर्गों से सुना था कि गर्भवती स्त्री की सभी इच्छाओं की पूर्ति करना चाहिये। इसलिए मैं तुरंत पड़ोसी के यहाँ सब्ज़ी माँगने गया। पड़ोसी मेरी आवश्यकता सुनते ही थोड़ा दुखी हो गया और बोला, ‘भैया मेरे यहाँ बनी तो पालक की सब्ज़ी ही है। लेकिन मैं यह पालक पैसे ना होने के कारण शमशान में मुर्दे के पास से चुरा कर लाया था। जब मैंने उससे थोड़ी देर और बात करी तो पता चला कि उसके बच्चे पिछले दो दिनों से भूखे थे। कर्ज में डूबे होने के कारण मैं कुछ और कर भी नहीं पा रहा था इसलिए चोरी करने के सिवा मेरे पास कोई और उपाय नहीं था। मैं यह अशुद्ध सब्ज़ी आपको कैसे दूँ। पड़ोसी की बात सुनते ही मेरा हृदय बहुत दुखी हो गया। मुझे लगा मेरे कुंभ जाने से ज़रूरी तो मुसीबत के दौर में परेशानी से जूझ रहे इस पड़ोसी की मदद करना है। इसलिए मैंने कुंभ मेले में जाने का विचार त्याग दिया और सारा पैसा मुसीबत के मारे मेरे इस पड़ोसी को दे दिया।’


एक पल चुप रहने के बाद राजू मोची अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोला, ‘गंगा स्नान के लिए टका-टका बचाने के प्रयास में मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ कई दिन भूखा रहा। लेकिन जब मैंने अपने जैसे ही एक और परिवार को इस हाल में देखा तो मुझसे रहा नहीं गया और मैंने अपने सपने को त्याग कर उनकी मदद कर दी। मुझे लगा उनकी मदद करना; उनकी सेवा करना ही मेरे लिये कुंभ मेले में जाने के समान है। इसलिए अपनी बचत के सारे पैसे उनके हाथ में रखने के बाद मेरे हृदय को बड़ी आत्मिक शांति मिली। मैं पूरी तरह जीवन में पहली बार संतुष्ट हो पाया। प्रभु जी! उस दिन से मेरे हृदय में आनंद और शांति आने लगी।’ पूरा वाक़या सुन कुंभ देवता और भगवान चित्रगुप्त ने राजू को ढेर सारा आशीर्वाद दिया और वहाँ से वापस देवस्थान चले गये। दोस्तों मुझे नहीं लगता कि अब कुंभ देवता के मन में पुण्य का फल दिये जाने संबंधी कोई दुविधा बची होगी।


उक्त कहानी दोस्तों धर्म के नाम पर पाखंड होता देख उस वक़्त याद आई जब एक सज्जन ने ग़रीब व्यक्ति को पूजन सामग्री को बिना नहाए हाथ लगाने पर दुत्कार दिया। उस ग़रीब व्यक्ति की गलती सिर्फ़ इतनी थी कि उसने झूठे हाथ से पूजन सामग्री के थैले को उठा लिया था। उस वक़्त मेरे मन में विचार आया कि हो सकता है कि उस ग़रीब के वेश में ईश्वर स्वयं उस पूजन सामग्री को स्वीकारने के लिए आए हों। लेकिन दुतकारे जाने के कारण अस्वीकार कर वापस चले गये हों। दोस्तों, जब तक हम मानव सेवा के महत्व को नहीं समझेंगे तब तक पूजा-पाठ, धर्म-कर्म का मेरी नज़र में तो कोई महत्व नहीं है। एक बार विचार कीजियेगा…


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com

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