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  • Writer's pictureNirmal Bhatnagar

तुलना क्यों?

Apr 3, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…



दोस्तों, मैं नहीं जानता अभी वाला समय अच्छा है या जो बीत गया वो। यह एक ऐसा विषय है जिसपर सबका एकमत होना शायद असंभव है। यह मैं हाल ही में मिले एक अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ, जिसमें युवाओं का एक समूह वर्तमान समाज को बेहतर बताते हुए दलील दे रहा था कि पहले आज जितनी सुख-सुविधाएँ नहीं थी। हम छोटे-छोटे कार्यों के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहते थे और हर काम में बहुत समय लगता था। तब ना तो रोड अच्छे थे और ना ही साफ़-सफ़ाई अच्छी होती थी। मेडिकल सुविधाओं की भी हालत ख़राब थी और जो लोग हमसे दूर रहते थे उनसे संपर्क करना भी आसान नहीं था।


पहले समूह के ठीक विपरीत दूसरे समूह का मानना था कि तमाम तरह की भौतिक असुविधाओं के बाद भी पहले के जमाने में कम से कम सुकून याने आत्मिक संतुष्टि और चैन तो था। तब लोग मानवता और इंसानियत पर आधारित जीवन जीते थे; याने एक दूसरे के सुख-दुख में साथ निभाते थे। पहले समूह की बात सुनते ही दूसरा समूह एकदम से बोला, ‘इंसानियत और मानवता तो आज भी है, बल्कि पहले से ज़्यादा ऑर्गनाइज्ड । ज़रा अपने आस-पास देखो; आज कितने सारे एनजीओ याने समाज सेवी संगठन इस दिशा में काम कर रहे हैं।


मैं थोड़ा दूर खड़ा दोनों समूह की बात सुन मुस्कुरा रहा था और मन-ही-मन हमारी जीवनशैली में आए परिवर्तनों को दो एकदम अलग नज़रिए से देख रहा था या यूँ कहूँ एक बार फिर अपने अंतर्मन में अपने जीवन को जन्म से लेकर आजतक फ़ास्ट फॉरवर्ड होते हुए देख रहा था। अभी मैं अपनी सपनों की दुनिया में ही था कि अचानक एक आवाज़ ने मेरी तंद्रा तोड़ी। ‘सर, आप तो कुछ बोल ही नहीं रहे? आप भी अपने विचार बताइए ना। दोनों समय में से कौन सा समय बेहतर था।’ मैंने अनावश्यक के विवाद में पढ़ने के स्थान पर बीच का रास्ता चुनते हुए उन्हें कहा, ‘दोनों समय के अपने-अपने मज़े और नुक़सान थे। जिस तरह वो समय गुजर गया, ठीक उसी तरह यह समय भी गुजर जाएगा। इसलिए दोनों की तुलना क्यों?’


लेकिन युवा कहाँ मेरी बात मानने वाले थे। उन्होंने मेरे मत को नज़रंदाज़ करते हुए कहा, ‘आप सीधे-सीधे बताइए आपके हिसाब से क्या उचित था।’ मैं एक पल शांत रहा उसके बाद धीमे शब्दों में बोला, ‘मैं अच्छा या बुरा बताने के स्थान पर कुछ घटनाएँ तुमसे साझा करता हूँ। उसके बाद तुम स्वयं तय कर लेना कि स्थितियों के आधार पर कौन सा समय बेहतर था? बात उस वक़्त की है जब मैं कक्षा चौथी या पाँचवीं में पढ़ता था। उस वक़्त एक दिन अचानक ही घर पर कुछ मेहमान आ गए। मेरी माताजी ने मुझे एक बर्तन हाथ में देते हुए कहा, ‘जाओ, ‘बा’ से थोड़ी शक्कर लेकर आ जाओ।’ आगे बढ़ने से पहले मैं आपको बता दूँ कि ‘बा’ याने मेरे घर के पास में रहने वाली गुजराती आंटी, जो मेरे लिये मेरी दादी समान थी।


ठीक इसी तरह का माहौल घर के सामने रहने वाली ‘मम्मी जी’ याने मेरे पिताजी की मित्र की माताजी, जया दीदी याने मेरे ताऊजी की राखी बहन, पड़ौस में रहने वाले डॉ प्रमोद कौशिक के पिता याने शर्मा अंकल और आंटी, डॉ संघवी, राहुल याने बंटी, जो मेरा बचपन का मित्र है के परिवार में था। संक्षेप में कहूँ तो हमारा मोहल्ला अपने आप में ही पूरा परिवार था। जिसमें ख़ुशी हो या ग़म, सब साथ में बाँट लिए जाते थे और हाँ यहाँ यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि मदद बिना माँगे और ज़रूरत बिना कहे पूरी हो जाती थी। आज भी यह सारे परिवार मुझे मेरे अपने परिवार समान ही लगते हैं।’


इतना कहकर मैं एक पल के लिये चुप हुआ, फिर अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोला, ‘ऐसा नहीं है कि आज की पीढ़ी को यह सब अच्छा नहीं लगता होगा। निश्चित तौर पर वे भी ऐसा ही चाहते होंगे और अपने-अपने स्तर पर करते भी होंगे लेकिन अब यह पहले जितना सिर्फ़ इसलिए नज़र नहीं आता है क्योंकि तेज़ी से भागती इस दुनिया में आज उनके पास रिश्तों को, अपनों को देने के लिए इतना समय नहीं है।’ मेरे इतना कहते ही वहाँ कुछ पलों के लिए एकदम खामोशी छा गई। जिसे तोड़ते हुए मैंने ही बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘उस समय के हिसाब से उस समय के लोग और उस समय के दिन बहुत अच्छे थे और इस समय के हिसाब से इस समय के लोग और यह दिन भी अच्छे हैं। बस हम इसे अपने-अपने हिसाब से, अपने नज़रिए अनुसार समय-समय पर देखते रहते हैं।’


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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