Jan 25, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
आईए दोस्तों, आज के लेख की शुरुआत एक क़िस्से से करते हैं। बात कई साल पुरानी है, ब्रह्म-मुहूर्त में गंगा-स्नान कर, वेद-मंत्र बोलते हुए जगद्गुरु शंकराचार्य जल्दी-जल्दी अपने आश्रम की तरफ बढ़ रहे थे। तभी रास्ते में उनकी नज़र साफ़-सफ़ाई कर रहे एक भंगी पर पड़ी, जिसने मैले-कुचैले गंदे से कपड़े पहने हुए थे। हालाँकि उस सफ़ाई कर्मचारी की एक और विशेषता थी, वह अपने काम को पूरी ईमानदारी, निष्ठा और तन्मयता से करा करता था क्योंकि उसका जीवन मंत्र ‘कार्य ही पूजा’ था। अर्थात् वह अपने कार्य को ही भगवान की सेवा माना करता था। इसी वजह से उसके मन में अपने कार्य के प्रति घृणा, उदासीनता के स्थान पर सम्मान का भाव था। दूसरे शब्दों में कहूँ तो इस सम्मान के पीछे उस कर्मचारी का अपने कार्य में भगवान के दर्शन करना था।
लेकिन कार्य के प्रति उसकी भावना से शंकराचार्य जी कहाँ परिचित थे। उनके लिए तो वह एक नीच जाति का व्यक्ति था। इसलिए उसे देखते ही शंकराचार्य जी को ग़ुस्सा आ गया और वे अपनी नाक-भौंह सिकोड़ते हुए, लगभग चिल्लाते हुए बोले, ‘दुष्ट! चल भाग यहाँ से। मेरा गंगा स्नान व्यर्थ करेगा क्या? चल दूर हट।’
अद्वैतवाद के प्रतिपादक जगद्गुरु कहलाने वाले शंकराचार्य जी की बात सुनते ही सफ़ाई कर्मचारी आश्चर्य से भर गया। वह सोचने लगा कि हर जीव याने हर प्राणी में एक ही ईश्वर की बात करनेवाले की दृष्टि और विचारों में इतना अधिक अंतर कैसे हैं? उसने इस विषय में जगतगुरु शंकराचार्य से ही पूछने का निर्णय लिया और पूर्ण गंभीरता के साथ नम्र भाव से बोला, ‘भगवन्, मैं आपकी बात समझ नहीं पाया। आप क्या कहना चाह रहे हैं? आप शरीर से शरीर को दूर करने के लिए कह रहे हैं अथवा आत्मा से आत्मा को। मैं पूर्णतः उलझन में हूँ, मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। देह से देह दूर हो तो क्या? और समीप हो तो क्या? क्योंकि यह तो जड़ है और रही बात आत्मा की, तो आत्मा को कैसे दूर किया जाए? क्योंकि मैंने तो अभी तक यही जाना है कि सभी में एक ही आत्मा का वास है।’
उस भंगी याने सफ़ाई कर्मचारी के तर्क भरे प्रश्न ने शंकराचार्य को ना सिर्फ़ सोचने पर मजबूर किया बल्कि यह कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि झकझोर डाला। वे स्वयं को कुछ भी कहने में असमर्थ पा रहे थे। अंत में अपने अज्ञान पर लज्जित होकर उन्होंने कहा, ‘देव! खुद को विद्वान् समझने वाले मुझ अज्ञानी को कृपा कर क्षमा कर दें।’
दोस्तों, उक्त कहानी मुझे उस वक़्त याद आई जब एक सेमिनार के दौरान एक सज्जन १२० लोगों की मौजूदगी में ख़ुद को सबसे अलग और सबसे विशेष मान रहे थे। उनका मानना था कि जितनी शिक्षा याने ‘डिग्रियाँ’ मैंने ली हैं उसकी आधी भी किसी अन्य के पास नहीं होंगी और वक्ता तो अभी २७-२८ साल का ही है। इसलिए वह या हॉल में मौजूद कोई और मुझे इस विषय में क्या सिखाएगा? वैसे दोस्तों, यह सिर्फ़ उन सज्जन की समस्या नहीं है हम में से ज़्यादातर लोगों का यही मानना होता है कि अगर किसी के पास डिग्रियाँ नहीं हैं तो वह अनपढ़ और अज्ञानी है।
उन महानुभाव का यह भाव कम उम्र का वक्ता जल्द ही भाँप गया और अपने व्यवहारिक ज्ञान यानी अनुभव के आधार पर उसने जल्द ही उन तथाकथित उच्च शिक्षित सज्जन को धराशायी कर दिया। याद रखियेगा दोस्तों, ज्ञान सिर्फ़ ‘डिग्रियों’ से ही नहीं मिलता है उसे तो अनुभव से भी कमाया जा सकता है। इसलिए कभी भी ख़ुद को ‘महा ज्ञानी’ समझने की भूल ना करें क्योंकि यह आपसे आपके सीखने की क्षमता और आगे बढ़ने का मौक़ा छीन लेता है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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