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Writer's pictureNirmal Bhatnagar

सांसारिक रहते हुए भी पायें अपने विकारों पर विजय…

Dec 6, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है...

आइये साथियों, आज के लेख की शुरुआत सूर्यवंशी राजाओं के पुरोहित महर्षि प्रवर वशिष्ठ से जुड़े एक किस्से से करते हैं। महर्षि वशिष्ठ भागीरथी नदी के किनारे पर प्रकृति के सुरम्य वातावरण के बीच अपनी पत्नी अरुंधती देवी के साथ निवास करते थे। वे गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं को निभाने के साथ-साथ ईश्वर की तपस्या किया करते थे। चारों दिशाओं में प्रकांड ज्ञानी और सूर्यवंशी राजाओं के पुरोहित के रूप में उनकी ख्याति फैली हुई थी।


एक बार गुरु वशिष्ठ जी के आश्रम में अपने क्रोधी स्वभाव के लिये प्रख्यात दुर्वासा ऋषि पधारे। गुरु वशिष्ठ की पत्नी देवी अरुन्धती ने उनके सम्मान और स्वागत-सत्कार के लिए अनेकों प्रकार के व्यंजन बनाए और उन्हें प्रणाम कर, उसे ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया। ऋषि दुर्वासा को माता अरुंधती का बनाया भोजन इतना रुचिकर लगा कि वे समूचे आश्रम के लिए बनाया भोजन अकेले ही खा गए। कोई इतना भोजन खा सकता है, यह माँ अरुंधति ने पहली बार देखा था, इसीलिए वे आश्चर्य से भरी हुई थी। दुर्वासा ऋषि को इस तरह भोजन करते देख ऐसा लग रहा था, मानो वे ऋषि प्रवर वशिष्ठ और माँ अरुंधती की परीक्षा ले रहे हों।


अभी दुर्वासा ऋषि का भोजन पूर्ण भी नहीं हुआ था कि तेज वर्षा होने लगी, जिसे देख माँ अरुंधती चिंता में पड़ गई क्योंकि वे जानती थी कि तेज बारिश की वजह से गुरुकुल और आश्रम के बीच बहने वाली सरिता; जो आगे चलकर भागीरथी में एकाकार हो जाती, में बाढ़ आ जाती है और बाढ़ की स्थिति में उसे पार करना असंभव हो जाता है। अगर आज ऐसा हो गया तो वे सरिता को पार नहीं कर पायेंगी और इस कारण सभी ब्रह्मचारी भूखे रह जाएँगे। यह चिन्ता माँ अरुंधती को काफ़ी खिन्न या यूँ कहूँ परेशान कर रही थी। महर्षि वशिष्ठ उसी क्षण माँ अरुंधति के असमंजस को भाँप गए और बोले, ‘भद्रे, चिंता मत करो! तुम निश्चिंत होकर जाओ और अगर नदी में अधिक पानी हो, तो तट पर पहुँच कर उससे अनुरोध करते हुए कहना, ‘निराहारी दुर्वासा को भोजन कराने का पुण्य फल यदि मैंने कमाया हो, तो उसके सहारे मुझे मार्ग मिले और मैं नदी के पार जाऊँ।’


अरुंधति मन में असमंजस लिए गुरुकुल की ओर चली और नदी में बाढ़ को देख पति याने महर्षि वशिष्ठ द्वारा बताये वचन को बोली। उनके ऐसा करते ही नदी का बहाव रुक गया और वे आराम से उसके पार चली गई। आश्चर्य से भरी माँ अरुंधती सोच रही थी कि इतना अधिक भोजन खाने वाले ऋषि दुर्वासा निराहारी कैसे रहे? नदी ने किस कारण इस झूठ को सच माना? वे अगले दिन तक इसी असमंजस में रही।


अगले दिन वे फिर से ऋषि दुर्वासा को भोजन कराने के लिए आश्रम गई। आज ऋषि दुर्वासा बहुत थोड़ा सा भोजन खाकर ही संतुष्ट हो गए। संयोगवश वहाँ से गुरुकुल लौटते वक्त कल जैसी ही घटना घटी। अर्थात् मूसलाधार वर्षा होने लगी। पहाड़ी नदी देखते ही देखते विशाल रूप लेते हुए इतराते हुए चलने लगी और कुछ ही क्षणों में पानी इतना बढ़ गया कि उस नदी को पार करना असंभव हो गया। बारिश इतनी घनी थी कि देख कर महसूस हो रहा था कि अब तो पानी तीन-चार प्रहर तक रुकेगा ही नहीं। माँ इस विषय में असमंजस के साथ सोच रही थी कि उन्हें एक बार फिर महर्षि ने अपने पास बुलाया और कहा, ‘भद्रे! कल जैसी परेशानी की स्थिति हो, तो नदी से अनुरोध करना कि ‘अगर मैं बाल ब्रह्मचारी वशिष्ठ की पत्नी रही हूँ, तो मुझे रास्ता मिले।’ ऋषि से आज्ञा और मन में दुविधा लिए माँ आश्रम से गुरुकुल की ओर चली। वे सोच रही थी कि यह कैसा अनुरोध व सरिता इसे कैसे स्वीकार करेगी?

खैर नदी किनारे पहुंच कर उन्होंने पूरी श्रद्धा से इस कथन को दोहराया और नदी बीते हुए कल की ही तरह एक बार फिर रुक गई। इसके पश्चात माँ अरुंधति ने किंचित मात्र पानी में चलते-चलते नदी को सफलतापूर्वक पार कर लिया। इसके पश्चात नदी फिर से पूरे वेग से बहने लगी।


इन दोनों घटनाओं के कारण माँ अरुंधती बड़ी असमंजस में थी। इस असमंजस को आज हुई घटना ने और भी ज़्यादा जटिल बना दिया था क्योंकि महर्षि वशिष्ठ सौ पुत्रों के पिता बन चुके थे। फिर वे स्वयं को ब्रह्मचारी कैसे कह रहे थे? नदी ने भी इनके मिथ्या कथन को सही क्यों माना और रास्ता क्यों दे दिया? महर्षि वशिष्ठ माँ अरुंधति से मिलते ही इस दुविधा को जान गए और अंत में उन्हें समझाते हुए बोले, ‘भद्रे! मनुष्य का मूल्याँकन उसकी मनःस्थिति के अनुरूप होता है। मात्र शरीर क्रियाओं के आधार पर किसी का स्तर, चिन्तन एवं चरित्र का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। प्रधानता भावना की है, क्रिया की नहीं। जो जल में रहकर भी उससे दूर है, जीवन व्यापार को निभाते हुए भी उसमें लिप्त नहीं है, उसका मूल्याँकन उसके अन्तरंग के अनुसार ही किया जा सकता है- बहिरंगीय क्रिया-कलापों के आधार पर नहीं।’


दोस्तों, उपरोक्त सीख के आधार पर कहा जाये तो सांसारिक दुनिया में रहते हुए, उस दुनिया की अपनी सभी जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी आप आध्यात्मिक दुनिया में रह सकते हैं। वैसे इसे दूसरे शब्दों में कहा जाये तो संसार में रहते हुए भी लोभ, काम, क्रोध, मोह आदि जैसे भावों से दूर रह कर जीवन के अपने उद्देश्य को पाया जा सकता है। एक बार आजमा कर देखियेगा…


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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