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जो मिले उसे मुस्कुरा कर स्वीकार करें…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Aug 12
  • 3 min read

Aug 12, 2025

फिर भी ज़िंदगी हसीन है...

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दोस्तों, हाल ही में एक मित्र ने अपनी उलझन साझा करते हुए कहा, “निर्मल! तुम्हारे बताये सूत्र बड़े उलझन भरे होते हैं।” मैंने उनकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा ही था कि वे अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले, “जैसे, एक ओर तुम याद दिलाते हो कि ‘संतोषी सदा सुखी’, वहीं दूसरी ओर तुम सपने देखने और कर्म करने को कहते हो।”


मैंने मुस्कुराते हुए उनसे कहा, “देखिए सुख, शांति, सफलता, आदि जैसी चीजों को पाने का कोई एक मंत्र नहीं होता। इन सब चीजों को कई बातों पर मनन कर, अपनी जीवनशैली में परिवर्तन से ही पाया जा सकता है। जैसे ‘संतोषी सदा सुखी’ का अर्थ कर्म या प्रयास छोड़ना नहीं, बल्कि परिणाम स्वरूप जो मिले उसे स्वीकारना है।”


दोस्तों, मुझे नहीं पता मित्र मेरी बात समझ पाये या नहीं पर ‘संतोष’ के विषय में मेरा बड़ा स्पष्ट मानना है कि अक्सर लोग इसका अर्थ ग़लत समझते हुए इसे आलस्य और अकर्मण्यता से जोड़ देते हैं। इतना ही नहीं कुछ लोग तो संतोष का मतलब ‘प्रयास ही न करना’ मान लेते हैं। जबकि सच तो यह है कि संतोष का असली अर्थ प्रयास छोड़ देना नहीं, बल्कि पूरा पुरुषार्थ करने के बाद जो भी परिणाम मिले, उसमें प्रसन्न रहना है।


दोस्तों, अगर आप संतोष और सफलता के साथ जीवन जीना चाहते हैं तो इसका एक ही सूत्र है, पुरुषार्थ के कार्य में हमेशा असंतोषी रहना। जी हाँ, जीवन में आगे बढ़ने के लिए यह वाक़ई ज़रूरी है कि पुरुषार्थ यानी प्रयास में कभी संतोष न हो। याद रखिएगा, जब तक आपके भीतर नई ऊँचाइयों को छूने की भूख है, तब तक आप प्रगति करते रहेंगे। इसलिए प्रयास की अंतिम सीमाओं तक जाना, खुद को निरंतर बेहतर बनाना और अपने लक्ष्य के लिए पूरी शक्ति लगा देना ही सफलता का एकमात्र मार्ग है।


इसलिए मेरा मानना है कि विजेता लोग हमेशा कर्म करने में असंतोषी रहते हैं और परिणाम को पूर्ण संतोष के साथ स्वीकारते हैं। इस विषय में एक बात और हमेशा याद रखियेगा, कर्म प्रधान तभी रहा जा सकता है जब आप अपने लक्ष्य पर अडिग रहते हैं। इसलिए एक क्षण के लिए भी अपने लक्ष्य को मत भूलिए। आपके जीवन का हर कदम, हर निर्णय और हर दिन आपके लक्ष्य के इर्द-गिर्द होना चाहिए।


अर्थात् कर्म प्रधान होना ही सफल होने का प्रमुख सूत्र है। इसलिए अपने समय को दूसरों को अपने बारे में बताने में बर्बाद मत कीजिए। इसे लक्ष्य पाने के लिए आवश्यक कर्म करने में लगाइए और अपनी सफलता को ही अपना परिचय बनने दीजिए। जब आप अपने कार्य और उपलब्धियों से बोलेंगे, तब आपको जीवन में कभी किसी को स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं होगी।


इसके साथ ही एक बात और हमेशा याद रखें, किसी भी कार्य को करते समय हमेशा यह भाव रखें कि “सब कुछ मुझ पर ही निर्भर है”। इससे आप कर्म करते वक्त अनावश्यक ढिलाई, आलस्य और बहानों से बच जाते हैं और जब आप अपनी ओर से कार्य पूर्ण कर लें तब अपनी सोच को बदल लें और भाव रखें कि “अब सब कुछ प्रभु पर निर्भर है।” यह सोच आपको परिणाम के बोझ से मुक्त कर, मानसिक शांति देगी।


दोस्तों, जब हम पूरी ईमानदारी और क्षमता से प्रयास करते हैं, तब जो भी परिणाम आता है, वह हमारे पुरुषार्थ और परिस्थितियों का सम्मिलित फल होता है। परिणाम चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल, उसे खुले दिल और प्रेम से स्वीकार करना ही असली संतोष है। यही भाव हमें अनावश्यक शिकायत, पछतावे और तनाव से दूर रखता है।


यकीनन दोस्तों, आनंदमय जीवन का रहस्य या हमारे जीवन का सार, “करने में सावधान और होने में प्रसन्न”, रहना है। यहाँ करने में सावधान होने का अर्थ है, ‘अपने काम में पूरे मन, ऊर्जा और ध्यान से जुटना’ और होने में प्रसन्न होने का अर्थ है, ‘जो भी हुआ, उसे सहजता और खुशी से स्वीकार करना। जो व्यक्ति इस संतुलन को सीख लेता है, उसके जीवन में न पछतावा रहता है, न ही असंतोष की आग। उसे अपने प्रयासों पर गर्व होता है और परिणाम चाहे जैसा हो, उसका मन शांत और प्रसन्न रहता है। पुरुषार्थ में असंतोष और परिणाम में संतोष – यही जीवन को सार्थक, सफल और आनंदमय बनाता है। अर्थात् संतोष का अर्थ पूर्ण पुरुषार्थ के बाद की मानसिक शांति है।


दोस्तों, कुल मिलाकर कहूँ तो पूरी ताकत से प्रयास करना, और फिर जो मिले उसे मुस्कुराकर स्वीकार करना ही सफलता की कुंजी है।”


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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