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मन है द्वार संसार का, ध्यान है द्वार मोक्ष का…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • 2 days ago
  • 3 min read

June 4, 2025

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, आज के युग में जितनी भागदौड़ हमारी ज़िंदगी में है, उतनी ही उथल-पुथल हमारे मन में भी है। याने हमारा जीवन भागदौड़ और हमारा मन विचारों की भीड़ से भरा हुआ है। कभी हमारा मन अतीत की यादों में खोया रहता है, तो कभी उसे भविष्य की चिंता सताती रहती है और जब कभी उसे इन दोनों से फुर्सत मिलती है तो वह वर्तमान की उलझनों को सुलझाने में व्यस्त हो जाता है और इसी वजह से सब कुछ होने के बाद भी हम शांत और संतुष्ट नहीं रह पाते हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो इस निरंतर सोच के चलते हम कभी यह सोच ही नहीं पाते हैं कि इस निरंतर सोच के पीछे कौन है और इसका समाधान क्या है?


इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें सबसे पहले समझना होगा कि हमारा ‘मन’ हमारे जीवन या हमारे संसार का मुख्य द्वार है। इस द्वार से ही हम इस संसार को देखते, समझते, जानते और उस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। लेकिन अक्सर हमारा यह द्वार याने मन इन कामों के इतर विचारों की नदियों में बहता रहता है। कभी यह एक पल की ख़ुशी में रहता है, तो दूसरे पल में चिंता में, फिर कभी दुख में, तो कभी आशा में। कुल मिलाकर कहूँ तो यह विचारों के खेल में उलझा रहता है और जब हम विचारों के इस खेल में उलझ जाते हैं याने विचारों की नदी में बहते हैं और बीतते समय के साथ उस विचारधारा से पूरी तरह एक हो जाते हैं। तब इस स्थिति में हम भूल जाते हैं कि हम मन नहीं हैं, हम तो मन से पूरी तरह अलग हैं।


दूसरे शब्दों में कहूँ तो अगर आप मन रूपी द्वार को विचारों की धारा से बचा कर हमेशा खुला रखना चाहते हैं और अपने सही रूप तक पहुँचना चाहते हैं तो आपको ध्यान रूपी मोक्ष के द्वार को समझना होगा। ध्यान याने जागना, देखना, और निर्विचार होना। इस स्थिति में हम विचारों को रोकने की कोशिश नहीं करते, बस उन्हें गुज़रते हुए देखते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कोई रोड किनारे खड़ा होकर गुज़रती हुई गाड़ियों को देखता है। ख़ुद को विचारों से अलग कर इस तरह आता-जाता देखना जल्द ही आपको एहसास करवा देता है कि आप विचारों से अलग हैं। याने आप विचारों के साक्षी हैं। यही साक्षी भाव ध्यान की शुरुआत है।


दोस्तों, उपरोक्त आधार पर कहा जाए तो हमें सोचने से देखने की यात्रा तय करना है। इसके लिए आपको मन की चाल को समझना होगा, जो हमें ध्यान से रोकना चाहता है। वह हमें उलझाने के लिए कहता है, “ध्यान के बारे में सोचो!” लेकिन ध्यान, सोचने की नहीं, अनुभव करने की चीज है। जब आप सोचते हैं, तब आप मन के जाल में फँसे होते हैं और जब आप देखते हैं, तब आप मन के पार चले जाते हैं।


इस आधार पर देखा जाए तो ध्यान में उतरने का एक ही रास्ता है, “सोचना बंद करो, विचारों को देखना शुरू करो।” जब आप विचारों को सिर्फ देखने लगते हैं, तो वे धीरे-धीरे कम होने लगते हैं और फिर एक दिन ऐसा आता है, जब विचार बिल्कुल शांत हो जाते हैं और अपने अंदर अलौकिक ऊर्जा को देखने और महसूस करने लगते हैं। शुद्ध चेतना की यह शान्त मौलिक स्थिति ही समाधि की स्थिति होती है। इसलिए याद रखियेगा समाधि कोई कठिन स्थिति नहीं बल्कि हमारी मौलिक स्थिति है, जिससे बस हम भटक गए हैं।


इसलिए ही आध्यात्म के मार्ग में कहा जाता है, “मन से पाया, ध्यान में खोया। मन से खोया, ध्यान में पाया।” सीधे शब्दों में कहूँ तो, मन की यात्रा हमें भ्रम याने अहंकार, पहचान, दुख, और तनाव की ओर ले जाती है और ध्यान की यात्रा हमें इन सब से दूर कर शांति, प्रेम, स्वतंत्रता, और स्वयं की पहचान कराती है। अर्थात् ध्यान हमें सच्चाई की ओर ले जाता है।


अंत में इतना ही कहूँगा दोस्तों कि ध्यान कोई तकनीक नहीं बल्कि जीवन जीने की नई दृष्टि है। ध्यान सोचने से नहीं आता, देखने से आता है। ध्यान कोई कार्य नहीं, जागरण है। इसलिए जागो… और अपने भीतर झाँको। दोस्तों, अगर मेरी बात से सहमत हैं और ध्यान की यात्रा पर आगे बढ़ना चाहते हैं तो आज ही शुरू करें और कुछ पलों के लिए मौन में बैठें, अपनी साँस को महसूस करे और अपने विचारों को आते-जाते देखें। बस जल्द ही आप पाएंगे कि आपका जागरण वहीं से शुरू हो जाता है। इसलिए हमेशा याद रखें, “मन है द्वार संसार का, ध्यान है द्वार मोक्ष का।”


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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