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सस्ती लोकप्रियता नहीं सम्मानजनक गुमनामी चुनें…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Jan 14, 2024
  • 3 min read

Jan 14, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

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दोस्तों, मेरी नज़र में सस्ती लोकप्रियता से सौ गुना बेहतर सम्मानजनक गुमनामी है। आप भी सोच रहे होंगे कि क्या फ़ालतू बात कर रहा हूँ। गुमनामी भी कभी सम्मानजनक हो सकती है? तो मैं आपसे कहूँगा, थोड़ी रुकिए और आज के क़िस्से को जरा सुन लीजिए। बात १२ जनवरी की शाम लगभग ९ बजे की है। मैं एक व्यवसायिक मीटिंग के लिए मेरे एक क्लाइंट के कार्यालय में बैठा था तभी उनके एक परिचित आए और बोले, ‘मित्र, चलो हम बस स्टैंड तक होकर आते हैं।’ बिना पूछे, सीधे आदेशात्मक स्वर में उनका ऐसा कहना मुझे थोड़ा कम जंचा। लेकिन परिचय ना होने के कारण मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा।

मेरे मन में अभी तमाम बातें घूम ही रही थी कि अचानक ही मेरे क्लाइंट बोले, ‘चलिए सर, एक छोटा सा ब्रेक लेकर आते हैं। काफ़ी देर से हम कार्य कर रहे हैं।’ मैं अनमने मन से उनके साथ हो लिया। कुछ ही देर में हम स्टेशन पहुँच गये और उन सज्जन ने अपनी गाड़ी को व्यवस्थित तरीक़े से एक जगह पार्क कर दिया। इसके पश्चात उन्होंने गाड़ी की डिक्की में से कंबल निकाले और उन्हें ज़रूरतमंदों को बाँटना शुरू कर दिया। मेरे क्लाइंट ने तुरंत अपना फ़ोन निकाला और उन सज्जन का फ़ोटो लेने लगे। जिसपर उन सज्जन ने एकदम से यह कहकर मित्र को रोक दिया कि ‘किसी की मजबूरी को अपनी संतुष्टि का साधन मत बनाओ।’


उन सज्जन की यह बात मेरे लिये जीवन के एक महत्वपूर्ण पाठ समान थी। इस जहां में जहाँ चार लोग मिलकर एक मजबूर को एक केला देते हुए फ़ोटो खिंचवाकर अगले दिन समाचार पत्र में छपवाना चाहते हैं। वहीं, एक यह सज्जन थे जो ख़ुद की याद के लिए भी फ़ोटो लेने को राज़ी नहीं थे। वहाँ से आने के बाद मैंने जब उनसे इस विषय में पूछा तो उनका कहना था कि ‘हमें इतना संवेदनशील तो होना चाहिए कि हम किसी की मजबूरी को अपने लिए अवसर ना बनाएँ। आप ख़ुद सोच कर देखिए कोई अगर आपके साथ ऐसा करता तो आपको कैसा लगता?’


तेज़ी से भागती इस दुनिया में उन सज्जन को समानुभूति के भाव के साथ कार्य करते देखना मेरे लिये एक सुखद अनुभूति से कम नहीं था। इस एक घटना ने उन सज्जन के प्रति मेरी सोच; मेरी भावना को पूरी तरह बदल दिया था। इसीलिए मैं हमेशा कहता हूँ, ‘समानुभूति वह पुल है जो दिल और दिमाग़ को जोड़ता है।’ वैसे अगर आप और गहराई से इस विषय में सोचेंगे तो पायेंगे कि यही वह चीज है, जिसकी आज के समाज को सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।


दोस्तों, अगर आप वाक़ई एक बेहतर दुनिया और शांतिपूर्ण जीवन की परिकल्पना करते है तो दिल और दिमाग़ की दूरी को कम कर समानुभूति के भाव के साथ जीना शुरू कीजिए। इसके लिए आपको सजगता के साथ जीना सीखना होगा। इसलिए दोस्तों, सबसे पहले वर्तमान में जीना सीखिए, सक्रिय रहिए, अच्छा देखिए, अच्छा सुनिए, अच्छा महसूस कीजिए, अच्छे कार्यों की तारीफ़ कीजिए, सिर्फ़ सहानुभूति नहीं समानुभूति रखना सीखिए। कहने का तात्पर्य है कि ईश्वर प्रदत्त हर दिन को पूर्णता के साथ जीने का प्रयास कीजिए क्योंकि समानुभूति के छोटे-छोटे कार्यों के माध्यम से हम ऐसा प्रभाव पैदा कर सकते हैं, जो न केवल हमारे जीवन को बल्कि हमारे आस-पास की दुनिया को भी बदल सकता है। शायद इसीलिए प्रख्यात लेखिका हेलेन केलर ने एक कहा था, ‘दुनिया की सबसे अच्छी और सबसे खूबसूरत चीज़ों को न तो देखा जा सकता है और न ही छुआ जा सकता है। उन्हें तो बस दिल दिल से महसूस किया जा सकता है।’ इसी बात को आप उपरोक्त उदाहरण से भी समझ सकते हैं। उन सज्जन ने कंबल समानुभूति के भाव के साथ-साथ ख़ुद के जीवन को सार्थकता देने के उद्देश्य से बाँटे थे, ना की दिखावे के लिए। जिसके कारण उन्हें सस्ती लोकप्रियता के मुक़ाबले एक अच्छा जीवन जीने के लिए आवश्यक प्रेरणा मिली। इसीलिए मैंने पूर्व में कहा था कि सस्ती लोकप्रियता से सौ गुना बेहतर सम्मानजनक गुमनामी है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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