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भारत के महान शिक्षक…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Sep 5, 2022
  • 4 min read

Sep 5, 2022

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

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Image credit : indiatvnews.com


दोस्तों, मेरी नज़र में तो कोई भी इंसान तभी सफल माना जा सकता है जब उसका जीवन हमारे जैसे आम लोगों के लिए प्रेरणा बन जाए। जी हाँ दोस्तों, जब किसी का जीवन कम से कम कुछ इंसानों के जीवन को बेहतर बना दे, तभी उसे सफल माना जाता है। ऐसे ही एक शख़्स हैं जिन्हें अपने जीवन काल में साहित्य के नोबल पुरस्कार के लिए 16 और शांति के नोबल पुरस्कार के लिए ग्यारह बार नामित किया गया और इतना ही नहीं शिक्षा के क्षेत्र में उनके द्वारा दिए गए असाधारण योगदान के लिए उन्हें ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हॉर्वर्ड, प्रिंसटन एवं शिकागो विश्वविद्यालय जैसे विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों द्वारा सम्मानित किया गया। इतना ही नहीं वर्ष 1913 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें “सर” की उपाधि से नवाज़ा एवं वर्ष 1975 में अमेरिकी सरकार द्वारा उन्हें टेंपलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया।


इस शख़्स के ज्ञान का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि इन्होंने अपने जीवन काल में विभिन्न विषयों पर 150 से ज़्यादा किताबें लिखी। उनकी शख़्सियत कुछ ऐसी थी कि उनको सम्मान देने के लिए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू की अनुशंसा पर सन 1952 में उप राष्ट्रपति का पद सृजन किया गया और 13 मई 1967 को वे हमारे देश के दूसरे राष्ट्रपति चुने गए। आप सही पहचान रहे हैं दोस्तों, मैं बात कर रहा हूँ, महान शिक्षक श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी की, जिन्हें वर्ष 1954 में भारत का पहला ‘भारत रत्न ’ पुरस्कार दिया गया था और उनके प्रति सम्मान प्रकट करते हुए, हर वर्ष उनके जन्मदिवस 5 सितम्बर को हम शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं।


भले ही दोस्तों वे हमारे देश के सर्वोच्च पद पर आसीन रहे लेकिन उन्होंने स्वयं को हमेशा एक साधारण शिक्षक ही माना और उच्च नैतिक मूल्यों के साथ ना सिर्फ़ खुद जीवन जिया, बल्कि अपने हर छात्र को ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। उनका मानना था ‘वास्तविक शिक्षक, छात्रों के दिमाग़ में तथ्यों को जबरन ठूँसने की जगह, आने वाले कल की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करता है’। जिससे वे एक मुक्त रचनात्मक व्यक्ति के रूप में ऐतिहासिक परिस्थितियों और प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध लड़ सके।


इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे अपने ज्ञान से परिपूर्ण व्याख्यान को हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से आनंददायक और मनोरंजक बनाकर छात्रों को भविष्य के लिए तैयार करते थे। इसीलिए उन्होंने शिक्षा को कभी नियमों में नहीं बांधा, वे कई बार अपनी कक्षा में जल्दी तो कई बार देर से जाते थे और मात्र 20 मिनिट में किसी भी विषय के छात्रों को समझा दिया करते थे। उनकी इस शैली के कारण छात्र उन्हें अपने मित्र या सलाहकार के रूप में देखते थे।


वर्ष 1909 में 21 वर्ष की उम्र में राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसीडेन्सी कॉलेज में दर्शन शास्त्र के कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर अपने मनपसंद कार्य, पढ़ाने की शुरुआत करी। वर्ष 1910 में व्याख्याता पद के लिए शिक्षण के प्रशिक्षण को पूरा करने के लिए उन्होंने मद्रास के विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और यहाँ अपने प्रोफ़ेसर की सलाह पर अपनी कक्षा के सहपाठियों को तेरह व्याख्यानों में दर्शन शास्त्र पढ़ाया। इन्हीं व्याख्यानों को संकलित कर वर्ष 1912 में ‘मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व’ के नाम से उनकी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई।


छात्र उन्हें कितना पसंद करते थे इस बात का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि मैसूर यूनिवर्सिटी से कलकत्ता स्थानांतरण होने पर छात्रों ने उन्हें फूलों से सजी बग्गी पर सम्मान सहित बैठाया और घोड़ों की जगह उस बग्गी को खुद खींच कर रेलवे स्टेशन तक ले गए। मैसूर स्टेशन पर भी लोगों ने आँखों में आंसू लिए, ‘सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी की जय हो’, के नारे लगाए।


उन्हें अपने देश के गौरवशाली इतिहास और शिक्षा पद्धति पर अटूट विश्वास और अथाह गर्व था। इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि एक बार विद्यार्थियों के पूछने पर कि ‘क्या आप उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाना पसंद करेंगे’ पर उन्होंने कहा था, ‘नहीं, लेकिन मैं वहाँ शिक्षा प्रदान करने के लिए अवश्य ही जाना चाहूँगा।’


इसी तरह लन्दन में एक रात्रि के खाने पर एक ब्रिटिश नागरिक ने कहा कि ‘भारतीय काली चमड़ी के होते हैं।’ यह सुनकर डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने धीरे से उत्तर दिया, “भगवान ने एक बार एक ब्रेड के टुकड़े को पकाया, जो जरूरत से ज्यादा पक गया, वे ‘नीग्रो’ कहलाते हैं। उसके बाद भगवान ने दोबारा एक ब्रेड को पकाया जो इस बार कुछ अधपका पका, वो कहलाते हैं ‘यूरोपियन’। उसके बाद भगवान ने सही तरीके से सही समय तक उस ब्रेड को पकाया जो अच्छे तरीके से पका उन्हें कहते हैं ‘भारतीय’।”


भारत की आज़ादी के दिन 14-15 अगस्त 1947 की रात्रि को जवाहर-लाल नेहरू जी चाहते थे कि राधाकृष्णन जी अपनी संभाषण प्रतिभा का उपयोग करते हुए रात्रि ठीक बारह बजे तक संविधान के इस ऐतिहासिक सत्र को सम्बोधित करें। डॉक्टर राधाकृष्णन जी ने उनकी आशानुसार रात्रि ठीक 12 बजे अपना व्याख्यान समाप्त किया। इसके बाद संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली गई और देश आज़ाद हो गया। 13 मई 1952 को वे भारत के पहले उपराष्ट्रपति एवं इसके बाद 13 मई 1962 को वे भारत के दूसरे राष्ट्रपति बनाए गए।


उनके कार्यकाल में जब भी संसद भवन में दो राजनीतिक पार्टियों के बीच गर्म माहौल बना, डॉक्टर राधाकृष्णन ने बहुत आसानी से सम्भालते हुए उसे पारिवारिक सभा में बदल दिया। राष्ट्रपति बनने के बाद भी सप्ताह में दो दिन कोई भी उनसे बिना अपॉइंटमेंट मिल सकता था। 17 अप्रेल 1975 को 86 वर्ष की उम्र में मद्रास में उन्होंने अपनी देह को त्याग दिया। उनका पूरा जीवन ही एक पाठ स्वरूप था, आईए, उनके दिखाए रास्ते पर चलकर एक नए शिक्षित भारत का निर्माण करते हैं।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com



 
 
 

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