अहंकार छोड़िए और जीवन की असली मंजिल पाइये…
- Nirmal Bhatnagar
- Oct 7
- 3 min read
Oct 7, 2025
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, बढ़ती उम्र या यूँ कहूँ बढ़ती समझ के साथ हम सब अपने जीवन में भक्ति, साधना और सफलता की ओर बढ़ना चाहते हैं, पर अक्सर अहंकार नाम की अदृश्य दीवार, हमें इस रास्ते पर चलने से रोकती है। जी हाँ, अहंकार वह दीवार है जो मनुष्य और उसकी असली सफलता एवं मनुष्य और ईश्वर के बीच खड़ी रहती है। आइए इस सत्य को उजागर करती एक कहानी से हम इसे विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।
बात कई साल पुरानी है, एक दिन एक साधु और एक डाकू दोनों मृत्यु के पश्चात एक साथ यमलोक पहुंचे। यमराज से आदेश पा भगवान चित्रगुप्त ने उनके जीवन के कर्मों का लेखा-जोखा खोला और दोनों से कहा, “तुम्हारे कर्मों के आधार पर निर्णय करने से पहले मैं तुम्हें एक मौक़ा देना चाहता हूँ। यदि तुम दोनों कुछ कहना चाहते हो, तो कहो।” डाकू सिर झुकाकर बोला, “महाराज, मैंने जीवन भर पाप किए। मुझे अपने कर्मों का पूरा पछतावा है। आप जो भी दंड देंगे, मैं उसे स्वीकार करता हूँ।”
भगवान चित्रगुप्त ने मुस्कुराते हुए साधु की और देखा और कहा, “आप कुछ कहना चाहते हैं?” साधु बोले, “भगवन्! मैंने जीवन भर तप किया, भक्ति की, कभी असत्य का साथ नहीं दिया। मैं स्वर्ग का अधिकारी हूँ। कृपा कर मुझे स्वर्ग भेज दीजिए।” साधु की बात सुन धर्मराज मुस्कुराए और फिर कुछ पल सोचकर बोले, “डाकू! तुम्हें दंड दिया जाता है कि आज से तुम इस साधु की सेवा करोगे।” धर्मराज का आदेश सुन डाकू ने विनम्रता से सिर झुकाया और कहा, ““महाराज, आपकी आज्ञा सिर माथे पर।”
लेकिन धर्मराज का न्याय सुन साधु एकदम से भड़क उठे और बोले, “महाराज! इस पापी के स्पर्श से मैं अपवित्र हो जाऊँगा। मेरी तपस्या व्यर्थ हो जाएगी। मेरे पुण्य का यह अपमान क्यों?” साधु की बात सुनते ही धर्मराज की आँखों में कठोरता झलकी और वे थोड़ी नाराज़गी के साथ बोले, “डाकू, जिसने जीवन में केवल हिंसा की, आज विनम्र होकर सेवा को तैयार है और तुम, जिसने वर्षों तक तप किया, आज भी अहंकार से ग्रस्त हो। तुम्हारी तपस्या अधूरी रही।” इतना कह धर्मराज एक क्षण के लिए चुप हुए फिर अपना नया आदेश सुनाते हुए बोले, “साधु, अब तुम इस डाकू की सेवा करोगे। इसी सेवा के माध्यम से तुम्हारा अहंकार मिटेगा, और तभी तुम्हारी तपस्या पूर्ण मानी जाएगी।”
दोस्तों, यह कथा हमें एक गहरी सीख देती है, असली तपस्या घंटों ध्यान या पूजा-पाठ या फिर बाहरी कर्मों में नहीं, बल्कि अहंकार छोड़ने में है। अहंकार वह आग है जो पुण्य को भी भस्म कर देती है। जब तक व्यक्ति “मैंने किया”, “मैं श्रेष्ठ हूँ”, “मैं धर्मात्मा हूँ” आदि जैसी भावना में जीता है, तब तक वह अपने भीतर के ईश्वर से दूर रहता है।
दोस्तों, सच्ची भक्ति तब शुरू होती है जब हम यह मान लेते हैं कि “मैं कुछ नहीं, सब वही है।” कुल मिलाकर कहूँ तो, सेवा, करुणा और विनम्रता ही तपस्या की असली पहचान हैं। डाकू ने अपने पापों को स्वीकार कर लिया, इसलिए उसमें परिवर्तन की संभावना थी। लेकिन साधु के भीतर “मैं” की दीवार खड़ी थी और वही उसे सच्चे ईश्वर-बोध से वंचित कर रही थी।
दोस्तों, धर्म, शास्त्र और शिक्षा आदि सभी के आधार पर कहा जाए तो जीवन का सार हमें सिखाता है कि भक्ति का सही अर्थ, विनम्रता है और तपस्या का असली अर्थ है अहंकार का त्याग है।” आप सफलता, साधना या सेवा आदि किसी भी मार्ग पर चल कर अपनी अंतिम मंजिल को “मैं” का भाव छोड़े बिना नहीं पा सकते हैं। याने अगर आपके मन में “मैं” का भाव है, तो मंज़िल अधूरी रह जाएगी। लेकिन जैसे ही आप इस “मैं” को मिटाएँगे आपको, ईश्वर मिल जायेगा है; आपको आपकी मंजिल मिल जाएगी।
याद रखिएगा, “असली संत वही है, जो खुद को सबसे छोटा मानता है।” इसलिए अहंकार छोड़िए, और देखिए आपका जीवन स्वर्ग बन जाएगा।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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