गुस्सा आना स्वाभाविक है…
- Nirmal Bhatnagar

- 9 hours ago
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Dec 2, 2025
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, गुस्सा एक ऐसी चिंगारी है जो समय की आँच पर तपकर सोना बने रिश्ते को राख बना सकती है। गुस्से के इस नकारात्मक रूप को समझाते हुए महात्मा बुद्ध ने कहा था, “ग़ुस्सा पकड़कर रखना ऐसा है जैसे आप खुद ज़हर पी लें और उम्मीद करें कि दूसरा व्यक्ति मर जाएगा।” अर्थात् गुस्सा दूसरों से ज्यादा ख़ुद को नुक़सान पहुँचाता है। जी हाँ दोस्तों, जब गुस्सा आपके भीतर रहता है तो आपके सुख और शांति को छीनता है; आपको अंदर ही अंदर नुकसान पहुँचाता है और जब आप इसे दूसरों पर बाहर निकालते हैं तब यह रिश्तों को तोड़ देता है; आपसी विश्वास को कम करता है और आपका मन भारी हो जाता है। लेकिन अगर आप इस गुस्से को सकारात्मक रूप से सही दिशा देना सीख जायें तो वही गुस्सा आपका जीवन बदल सकता है। चलिए अपनी बात को मैं आपको एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ-
कई साल पहले एक छोटे से गाँव में एक कुम्हार और उसकी पत्नी रहा करते थे। कुम्हार स्वभाव से एकदम शांत, स्थिर और सहनशील इंसान था, जबकि उसकी पत्नी बहुत जल्द ग़ुस्सा हो जाती थी। जब भी उससे इस विषय में पूछा जाता था तो वह कहती थी कि उसे खुद ही समझ नहीं आता कि उसे इतना क्रोध क्यों आता है। हालांकि उसे हमेशा क्रोध के बाद रिश्ते बिगड़ने के कारण पछतावा होता था और इसी वजह से उसका मन भारी भी रहता था।
एक दिन वह रोते हुए कुम्हार से बोली, “मुझे हर बात पर ग़ुस्सा आ जाता है…मेरे रिश्ते टूट रहे हैं… कुछ करो, मेरा इलाज कराओ!” कुम्हार ने उसे शांत किया और अगले दिन सुबह उसे गाँव के प्रसिद्ध वैद्य के पास ले गया। वैद्य जी ने उसकी सारी बात बड़े शांत भाव से सुनी और कुछ देर सोचने का नाटक करते हुए बोले, “पूर्व में मुझे भी ऐसी बीमारी थी और मेरे गुरु ने उसका इलाज एक बहुत ही साधारण और सस्ती दवा से किया था। वही दवा मैं तुम्हें देता हूँ।”
इतना कह वैद्य अपने घर के अंदर गए और एक छोटी सी पुड़िया लेकर आए और उसे देते हुए बोले, “यह बहुत ही दिव्य दवाई है। जब भी तुम्हें गुस्सा आए एक गहरी साँस लेकर इस दवा की दो गोलियों को मुँह में रखकर चूसना… ध्यान रहे उन्हें किसी भी हाल में चबाना मत, सिर्फ चूसना और अगले सप्ताह मुझसे आकर मिलना।” पत्नी ने ठीक वैसा ही किया और तय कार्यक्रम के अनुसार ठीक एक सप्ताह बाद वैद्य जी के यहाँ पहुँची और सीधे ही उनके चरणों में गिर गई।
वैद्य जी ने उसे उठाया और उससे उसके ग़ुस्से के विषय में पूछा तो वो बोली, “वैद्य जी, आपकी दवा ने चमत्कार कर दिया! मात्र एक सप्ताह ही में मेरे कई रिश्ते इस दवाई की वजह से टूटने से बच गए। पिछले सप्ताह जब भी मुझे गुस्सा आया मैंने आपकी दी गोली चूसी और शांत हो गई। अब न झगड़ा होता है, न लड़ाई। घर का माहौल बदल गया है!” कुम्हारन की बात सुन वैद्य जी मुस्कुराए और बोले, “बेटी मैंने तुम्हें कोई दिव्य दवा नहीं बल्कि मीठी गोली चूसने के लिए दी थी।”
वैधजी की बात सुन वह चौंकते हुए बोली, “तो फिर मेरी समस्या कैसे ठीक हो रही है?” वैद्य जी उसी मुस्कुराहट के साथ बोले,“जिस भी क्षण तुम्हें ग़ुस्सा आया, तुमने गोली चूसना शुरू कर दिया याने तुम चुप हो गई और इसी वजह से गुस्से से बच गई। याद रखो, ग़ुस्से का असली इलाज दवा नहीं, चुप रहना, स्वयं को प्रतिक्रिया देने से रोकना और पल भर को रुककर सोचना है। इन्हीं तीनों बातों ने तुम्हें गुस्से से बचाया है।”
दोस्तों बात तो वैद्य जी की एकदम सही थी, हकीकत में ग़ुस्सा आग है, यदि इसे समय से पहले सम्भाला ना जाये तो ये रिश्तों को ख़त्म कर देता है और अगर उसे संयम के साथ सही तरीके से चैनलाइज़ कर लिया जाये तो तो वही आग चरित्र, धैर्य, और सहनशीलता को तपाकर सोने जैसा बना देती है। इसलिए मेरा मानना है ग़ुस्से को रोकना कमजोरी नहीं, बल्कि आत्म-नियंत्रण की सबसे बड़ी ताकत है। इसी बात को समझाते हुए दलाई लामा कहते हैं, “अगर आप हर स्थिति का जवाब क्रोध से देंगे, तो आप हमेशा दर्द में ही रहेंगे।”
इस आधार पर कहा जाए तो बार-बार या रोज़ गुस्सा आना स्वाभाविक है, पर उसपर प्रतिक्रिया ना देना हमारा निर्णय है। ग़ुस्से के क्षण में बोल दिया गया एक वाक्य, रिश्ता तोड़ सकता है और उसी क्षण में चुप रह जाना, उसे जीवनभर के लिए बचा सकता है। याने ग़ुस्सा एक चिंगारी है जो या तो रिश्तों को जलाएगी, या आपके भीतर के चरित्र रूपी सोने को तपाकर उज्ज्वल करेगी। अब चुनाव आपका है कि आप इससे फ़ायदा उठाना चाहते हैं या हमेशा नुक़सान में बने रहना चाहते हैं।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर




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