जिद, संवेदना और आत्मबल से जीते जहां…
- Nirmal Bhatnagar
- 6 days ago
- 3 min read
Oct 9, 2025
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

कर्नाटक के सिरसी की मिट्टी में एक ऐसी कहानी दबी है, जो जितनी साधारण लगती है, उतनी ही असाधारण है। यह कहानी है 58 वर्षीय गौरी चंद्रशेखर नाइक की, जिसे समाज ने परिस्थितियों के आधार पर ‘बेचारी’, ‘अबला’, ‘अकेली’, ‘कमज़ोर’ आदि ना जाने क्या-क्या कहा, पर उसने इन सभी बातों को नजरंदाज करते हुए बीतते समय के साथ सिद्ध कर दिया कि दृढ़ निश्चय और प्रेम से बड़ा कोई सहारा नहीं होता और इनकी सहायता के साथ आप किसी भी लक्ष्य को पा सकते हैं। चलिए गौरी जी की कहानी को थोड़ा विस्तार से जानते हैं।
सोलह साल पहले जब गौरी के पति का देहांत हुआ, तब दुनिया ने उनके लिए संवेदना नहीं, बल्कि अफसोस जताया और कहा, “अब ये क्या कर पाएंगी?” गौरी इन बातों को सुन सिर्फ़ मुस्कुराई, उन्होंने निश्चय किया कि मैं इन सब बातों का जवाब अपने कर्मों से दूँगी। सर्वप्रथम उन्होंने मजदूरी करके अपने दो बच्चों को पाला और जब भी जीवन में कोई कठिनाई या चुनौती आई तो वे सिर्फ़ मुस्कुराई, और फिर एक दिन उन्होंने वो काम किया, जिसकी वजह से आज पूरा गाँव उनके समक्ष नतमस्तक है।
असल में उनके गाँव के आंगनवाड़ी केंद्र में पानी की भारी समस्या थी। सामान्यतः रोज वहाँ बच्चे प्यासे रह जाते, और कई बार तो खाना बनाने के लिए भी पानी कम होता था। गौरी ने बच्चों को होने वाली परेशानी को महसूस किया और ठान लिया कि “जब तक इस धरती में पानी है, मेरे बच्चों को प्यासा नहीं रहना पड़ेगा।” इस विचार के साथ उन्होंने बिना किसी मदद और मशीन के, अपने हाथों से एक कुआँ खोदना शुरू कर दिया। कुआँ खोदते समय कभी मिट्टी कठोर हुई, तो कभी शरीर थक गया, लेकिन उनका संकल्प इन सबके बावजूद भी नहीं टूटा। उन्होंने धूप में झुलसते और बारिश में भीगते हुए भी अपना कार्य ख़ुद से यह कहते हुए जारी रखा कि “अगर मैं नहीं करूँगी, तो कौन करेगा?”
इसका नतीजा यह हुआ कि एक दिन, धरती ने हार मान ली और कुएँ से पानी फूट पड़ा। जिसे देखते ही गाँव के बच्चे खिलखिला उठे और साथ ही जो आंगनवाड़ी, कभी प्यास के कारण सूखी रहती थी, अब जीवन से भर गई। उनके इस जज़्बे को देख गाँव वालो ने कहना शुरू कर दिया कि “गौरी अम्मा ने चमत्कार कर दिया।” लेकिन दोस्तों, यह कोई चमत्कार नहीं था, यह श्रम की, मातृत्व की और आत्मबल की कहानी थी। गौरी अम्मा यहाँ भी नहीं रुकी, अभी कुछ ही साल पहले उन्होंने अकेले ही 75 फीट गहरा कुआँ अपने खेत के लिए खोदा था ताकि वे केले और सुपारी की फसल अच्छे से कर पायें। दोस्तों परिस्थिति वश गौरी अम्मा अकेली रही, लेकिन कभी असहाय नहीं।
गौरी अम्मा का साहस बचपन से ही निराला था। जब बाकी लड़कियाँ ज़मीन पर खेलती थीं, वे सबसे ऊँचे पेड़ों पर चढ़ती थी। जिन डालों से लड़के भी डरते थे, वे वहाँ से फल तोड़ लाती थी। शायद तभी किस्मत ने उन्हें ऊँचे लक्ष्यों को पाने का हुनर दिया, जिसकी वजह से वे जीवन की ऊँचाइयों को कुएँ की गहराई में उतरकर पा पायी। आज लोग उन्हें ‘लेडी भागीरथ’ कहते है। याने वे उनकी तुलना उस भागीरथ से करते हैं जो गंगा माँ को पृथ्वी पर लाए थे। वैसे यह तुलना सही भी है क्योंकि गौरी अम्मा ने भी पाताल से पानी को धरती के ऊपर लाकर, जीवन को पुनर्जीवित किया है।
दोस्तों, उनकी कहानी केवल प्रेरणादायी नहीं है, यह हमें याद दिलाती है कि असली सशक्तिकरण भाषणों या नारों से नहीं आता। यह तो उन हथेलियों से आता है जो मिट्टी में उतरकर उम्मीद खोज लेती हैं। इस लेख के माध्यम से मैं गौरी अम्मा को सलाम करता हूँ, जिन्होंने बिना किसी मंच, बिना किसी कैमरे के, अपने कर्मों से बताया कि असली ताक़त किसी शरीर में नहीं, बल्कि उस आत्मा में होती है जो दूसरों के लिए जीना जानती है। दोस्तों, आज अगर हर इंसान में गौरी जैसी जिद, संवेदना और आत्मबल आ जाए, तो शायद धरती पर कोई बच्चा, कोई माँ, और कोई दिल, कभी प्यासा नहीं रहेगा।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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