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निस्वार्थ भाव से किया छोटा त्याग भी अनमोल है…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • 13 minutes ago
  • 2 min read

Sep 5, 2025

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

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एक बार भगवान चित्रगुप्त के सम्मुख यमदूत दो आत्माओं को लेकर पहुंचे और उनके विषय में बताते हुए बोले, “प्रभु, यह पहली आत्मा एक धनी सेठ की है, जिसने बहुत सारा पैसा कमाने के साथ-साथ कई मंदिर, धर्मशालाएँ और कुएँ बनवायें और यह दूसरी आत्मा एक बहुत ही ग़रीब इंसान की है, जिसने अपने पूरे जीवन बमुश्किल दो वक्त की रोटी खाई है। कृपया बतायें इनको कहाँ ले जाया जाये।” भगवान, चित्रगुप्त ने अपनी पोथी खोली और कुछ गणनाएँ करने के बाद बड़े गंभीर स्वर में बोले, “धनी को नर्क और गरीब को स्वर्ग ले जाओ।”


यमराज सहित वहाँ मौजूद हर व्यक्ति हैरान रह गए और एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। तभी धनी आदमी की आत्मा ने भगवान चित्रगुप्त से पूछा, “प्रभु मैंने इतना दान-पुण्य किया फिर भी आपने मुझे नर्क भेजने का निर्णय सुनाया। ऐसा क्यूँ?” भगवान चित्रगुप्त कुछ कहते उसके पहले यमराज जी ने भी यही प्रश्न पूछ लिया, जिसे सुन भगवान चित्रगुप्त मुस्कुराते हुए बोले, “भगवान, इस धनी इंसान ने धर्म के नाम पर काम तो बहुत किया, लेकिन इसने वो सारा धन दूसरों के शोषण और बेईमानी से कमाया। उसने धर्म निर्माण का कार्य लोकहित की नजर से नहीं, बल्कि स्वार्थ और नाम कमाने की भावना से किया था। वह चाहता था कि लोग उसकी प्रशंसा करें, उसकी जय-जयकार करें। लेकिन इसके विपरीत इस बेहद ग़रीब व्यक्ति ने भूखा होने के बाद भी अपने हिस्से की रोटियाँ एक भूखे कुत्ते को खिला दीं। उस वक्त उसके दिल में स्वार्थ नहीं, केवल करुणा थी। सोचो, अगर इसके पास साधन होते, तो यह कितने भूखे इंसानों का पेट भरता!”


इतना कह कर भगवान चित्रगुप्त कुछ क्षणों के लिए रुके, फिर अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले, “पाप और पुण्य का आधार बाहरी काम नहीं, बल्कि भीतरी भावना होती है। इसलिए असली स्वर्ग उसी का है, जिसके दिल में करुणा और निस्वार्थता बसी हो।”


दोस्तों, भगवान चित्रगुप्त द्वारा कही गई यह बात सुनने में साधारण लग सकती है, लेकिन हकीकत में मानव जीवन का सच्चा मर्म अपने अंदर समाया हुआ है। असल में सच्ची महानता कर्मों की भव्यता में नहीं, बल्कि भावनाओं की पवित्रता में होती है। इसलिए ही कहा जाता है कि “सच्चा पुण्य और सच्ची महानता कभी दिखावे से नहीं आती। वह तो आती है दिल की गहराई से, प्रेम और निस्वार्थता से, उस भाव से जब आप अपनी थाली का एक टुकड़ा किसी और के लिए छोड़ दें। जी हाँ दोस्तों, हक़ीक़त में बड़ा बनने के लिए बड़े कर्मों की नहीं, बड़े दिल की ज़रूरत होती है। याद रखियेगा, दान तब तक अधूरा है जब तक उसमें दिखावा है; और छोटा-सा त्याग भी अनमोल है, जब उसमें निस्वार्थ भाव है।


इसी बात को समझाते हुए प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने कहा था, “करुणा वह भाषा है, जिसे बहरे सुन सकते हैं और अंधे देख सकते हैं।” तो आइए दोस्तों, आज हम सब मिलकर यह संकल्प लेते है कि जीवन चाहे छोटा हो या साधन कितने ही सीमित क्यों न हों, हम उन्हीं सीमित साधनों से जरूरतमंदों की मदद करेंगे। क्योंकि वही छोटी-सी मदद याने रोशनी किसी और की अंधेरी राह को रोशन कर सकती है और उसकी ज़िंदगी को नई दिशा दे सकती है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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