मन और माया का खेल…
- Nirmal Bhatnagar

- 5 hours ago
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Nov 24, 2025
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

यकीन मानियेगा दोस्तों, परम पूर्णता के एहसास के साथ सफल जीवन जीने के लिए जो सबसे बड़ा अदृश्य युद्ध किसी भी इंसान को लड़ना होता है वह मन और माया के खेल के विरुद्ध होता है क्योंकि आम इंसान कभी भी जीवन को मन और माया से अलग मान ही नहीं पाता है। इसी बात को समझाते हुए जगत् गुरु आदि शंकराचार्य जी ने कहा था, “दुनिया एक माया है—परंतु जो इसकी सच्चाई जान ले, वह मुक्त हो जाता है।”
दोस्तों, हमारी पूरी ज़िंदगी एक रस्साकशी के खेल की तरह है। जिसमें एक तरफ मन है, जो इच्छाएँ उत्पन्न करता है, और दूसरी तरफ माया है, जो उन इच्छाओं को आकर्षक बनाती है। इन दोनों के बीच जीवन हिचकोले खाते हुए कब बीत जाता है, अक्सर पता ही नहीं चल पाता है। चलिए एक बात बताइए, क्या आपने कभी सोचा है कि मन में इच्छाएँ आती क्यों हैं? हम किसी चीज़ की ओर खिंच क्यों जाते हैं? क्यों कुछ पल बाद पता चलता है कि यह जो आकर्षण था, वह स्थायी नहीं था? असल में यही सब मन और माया का खेल है ।
दोस्तों, अगर आप इस खेल से बच कर जीवन जीना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें इच्छा को थोड़ा गहराई से समझना होगा। इच्छा का जन्म हमारे मन में भ्रम की उस स्थिति में होता है, जब हम कुछ पाने, भोगने या ग्रहण करने का प्रयास करते हैं। जी हाँ सही सुना आपने, मन में जब यह भ्रम आता है कि बाहर कुछ ऐसा है जो हमें सुख दे सकता है, तो वह इच्छा को पैदा करता है और भ्रम का यह खेल माया का परिणाम होता है।
अब आपके मन में प्रश्न आ रहा होगा कि फिर माया क्या है? तो आगे बढ़ने से पहले में संक्षेप में बता दूँ कि माया वह है जो आकर्षित करती है, भ्रमित करती है, लुभाती है। जैसे सामने कोई सुंदर अप्सरा खड़ी हो, तो आपका मन उसे देख अपने लक्ष्य से भ्रमित हो सकता है। पर हक़ीक़त में यह केवल ईश्वर की एक परीक्षा या फिर एक छलावा या भ्रम हो सकता है।
यहाँ अप्सरा का तात्पर्य माया से है और जो उसके आकर्षण में फँसा था वह मन है। लेकिन यहाँ मजे की बात यह है कि माया का स्वरूप सभी के लिए एक जैसा होने के बाद भी हर किसी का मन इसमें नहीं फँसता। जी हाँ, किसका मन, माया में फँसेगा और किसका नहीं, यह उस व्यक्ति के ज्ञान, विवेक और आत्मबल पर निर्भर करता है।
संत समान लोग इसी बात के ज्ञान की वजह से इसमें नहीं फँसते। याने जिनमें इस बात का आत्मज्ञान होता है कि जो सामने है, वह वास्तविक नहीं है, वे इससे बच जाते हैं। वे जानते हैं कि माया की उम्र मच्छर की जान से भी कम होती है। ऐसे लोगों को माया जैसे ही लुभाने की कोशिश करती है, वे ख़ुद को उसी क्षण याद दिलाते हैं कि “यह परीक्षा है, और इसमें मुझे फँसना नहीं है।”
इसके विपरीत जिन लोगों को इस बात का भान नहीं होता है वे मन के अज्ञान के कारण माया को वास्तविक समझ लेते हैं और फिर माया उन्हें विश्वास दिला देती है कि “यही असली सुख है।” फिर उनका मन उसके पीछे भागना शुरू करता है। मन को इस तरह विचलित देख माया कहती है, “देख यही तेरी असली पहचान है।” यह सुनते ही मन उससे पूरी तरह जुड़ जाता है। फिर माया कहती है, “यही बात या चीज तुम्हें पूर्ण बनायेगी।” इतना सुनते ही मन उसमें खो जाता है और यह बात भूल जाता है कि हम स्वयं आनंद स्वरूप हैं। हम स्वयं पूर्ण हैं, हमें बाहर कुछ पाने की आवश्यकता ही नहीं। पर अक्सर मन आकर्षण में इतना बह जाता है कि वह खुद को भूल जाता है और फिर पूरी जिंदगी माया के पीछे भागता रहता है।
दोस्तों, मन और माया के इस खेल से मुक्त होना चाहते हों तो ज्ञान, विवेक और आत्मबोध की शक्ति की सहायता लो क्योंकि जब मन समझ जाता है कि जो भी सामने है वह परिवर्तनशील है, अस्थायी है, माया है, तो उसका आकर्षण स्वयं ही समाप्त हो जाता है। जैसे अँधेरे में रस्सी को साँप समझकर हम डर जाते हैं। पर जैसे ही रस्सी पर प्रकाश पड़ता है, भय मिट जाता है। यहाँ ज्ञान वह प्रकाश है जो मन और माया के अँधेरे को मिटा सकता है।
दोस्तों, अंत में इतना ही दोहराऊँगा कि मन और माया का खेल अनंत है। पर जिसने माया की चाल समझ ली, जिसने मन को साध लिया, जिसने अपना आत्मस्वरूप पहचान लिया, वही मुक्त है, वही शांत है, वही वास्तव में जीवित है। याद रखिएगा,
माया आकर्षित करती है, पर निर्णय मन लेता है और मन पर नियंत्रण निश्चित तौर पर आपके हाथ में है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर




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